क्या यीशु झूठ बोल रहे थे?
यीशु के कठोरतम आलोचकों ने भी कभी कभार ही उन्हें झूठा कहा। यह उपनाम यीशु के उच्च नैतिक तथा आचार नीति शिक्षाओं के उपयुक्त बिल्कुल नहीं है। परंतु यदि यीशु वे नहीं थे जिसका वे दावा करते थे, तो हमें इस विकल्प पर विचार करना पड़ेगा कि वे जानबूझ करके सभी को भ्रमित कर रहे थे।
अभी तक के सबसे प्रख्यात और सबसे प्रभावी राजनीतिक कार्यों में से एक निकोलो मेकियावेली द्वारा 1532 में लिखा गया था। अपने इस उत्कृष्ट साहित्य, द प्रिंस, में मेकियावेली ने सत्ता, सफलता, छवि और कार्यकुशलता की निष्ठा, आस्था और ईमानदारी से ज्यादा प्रशंसा की है। मेकियावेली के अनुसार, झूठ बोलना ठीक है यदि यह राजनीतिक लक्ष्य को पूरा करता है।
क्या ईसा मसीह अपनी संपूर्ण सेवा की स्थापना एक झूठ पर केवल सत्ता, प्रसिद्धि या सफलता प्राप्त करने के लिए कर सकते थे? वास्तव में, यीशु के यहूदी विरोधियों ने लगातार हमेशा उन्हें एक ढोंगी और झूठे के रूप में दिखाने का प्रयास किया। वे उनसे सवालों की झड़ी लगा देते थे, ताकि वे उलझ जाएँ और स्वयं अपनी ही बात का खंडन कर बैठे। इसके बावजूद यीशु ने असाधारण सामंजस्य के साथ उत्तर दिया।
प्रश्न, जिस पर हमें विचार करना चाहिए: वह क्या चीज़ हो सकती है, जिसने यीशु को अपना संपूर्ण जीवन एक झूठ की तरह व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया होगा? उन्होंने यह बताया कि ईश्वर झूठ और कपट के घोर विरोधी हैं, इसलिए वह अपने पिता परमेश्वर को खुश करने के लिए ऐसा नहीं कर सकते थे। उन्होंने निश्चित रूप से अपने अनुयायियों के लाभ हेतु झूठ नहीं बोला, क्योंकि उनमें से एक को छोड़ कर सब उनके प्रभुत्व को परित्याग करने के बजाय शहीद हो गए (“क्या धर्मदूत मानते थे कि यीशु भगवान हैं?” देखें। और इस प्रकार हमारे पास केवल दो उचित व्याख्या शेष रह गए हैं, जिनमें से दोनों समस्यात्मक हैं।