क्या यीशु ने परमेश्वर होने का दावा किया?
कई लोग ईसा मसीह को एक अच्छे इंसान या एक महान पैगम्बर के रूप में स्वीकार करना चाहते हैं और तर्क देते हैं कि यीशु ने कभी परमेश्वर होने का दावा किया ही नहीं। जो लोग उनके ईश्वरत्व का खंडन करते हैं वे उन ग्रंथों की ओर इशारा करते हैं जिनमें उनकी इस धारणा का आधार है कि यीशू ने कभी भी परमेश्वर के रूप में स्वयं की आराधना कराने का प्रयास नहीं किया था।
हालांकि प्रमाण यह बताते हैं कि धर्मदूतों के समय से ही यीशु को परमेश्वर के रूप में पूजा जाता था। धर्मदूतों की मृत्यु के पश्चात् प्रथम और द्वितीय शताब्दी के गिरजे के कई अगुआ ने यीशु के ईश्वरत्व के बारे में लिखा था। अंततः 325 ईसवी में गिरजा की अगुआई ने इस मत को व्यक्त किया कि यीशु पूर्ण रूप से परमेश्वर हैं।
कुछ लोग तर्क देते हैं कि गिरजा ने ईसा चरित के वृत्तांतों को फिर से लिख कर यीशु के ईश्वरत्व का “आविष्कार” किया था। असल में, विश्व की सबसे अधिक बिकने वाली काल्पनिक पुस्तक द डा विंची कोड ने इसका दावा करते हुए चार करोड़ से अधिक पुस्तकें बेचीं (देखें “क्या कोई डा विंची साजिश थी?”)। हालांकि इस पुस्तक ने इसके लेखक डैन ब्राउन को मालामाल कर दिया था परंतु उनके काल्पनिक वृत्तांत को विद्वानों ने एक खराब इतिहास के रूप में खारिज कर दिया। वास्तव में, नवविधान को “सभी प्रचीन ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में सबसे अधिक विश्वसनीय” माना गया है (देखें, “क्या ईसा चरित सत्य हैं?”)[1]
इस लेख में हम जांचेंगे कि ईसा मसीह ने स्वयं के बारे में क्या कहा था। “मनुष्य का पुत्र,” और “परमेश्वर का पुत्र” से यीशु का क्या अभिप्राय था?” अगर यीशु परमेश्वर नहीं थे तो उनके शत्रुओं ने उन पर “ईश निंदा” का आरोप क्यों लगाया था? अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर यीशु परमेश्वर नहीं थे तो उन्होंने अपनी आराधना करवाना क्यों स्वीकार किया?
आइये पहले संक्षिप्त रूप से देखें कि ईसा मसीह के बारे में ईसाईयों की क्या धारणा है।
विधाता से बढ़ई तक?
ईसाई धर्म की मूल धारणा यह है कि परमेश्वर ने अपने पुत्र, ईसा मसीह के रूप में धरती पर अवतार लिया। बाइबिल यह शिक्षा देती है कि यीशु को फरिश्तों के रूप में नहीं बल्कि विश्व के सच्चे विधाता के रूप में पैदा किया गया था। जैसा कि धर्मशास्त्री जे. आई. पैकर लिखते हैं, “ईसा चरित हमें बताते हैं कि हमारा विधाता हमारा उद्धारकर्ता बन गया।”[2]
नवविधान यह बताता है कि परमपिता की इच्छा के अनुसार यीशु ने एक छोटा असहाय शिशु बनने के लिए अपनी शक्ति और महिमा को थोड़े समय के लिए छोड़ दिया। बड़े होने के बाद यीशु ने बढ़ई की दुकान में काम किया, भूख, थकान की अनुभूति की और पीड़ा का सामना किया और हमारी ही तरह उनकी मृत्यु हो गई। फिर 30 की उम्र में उन्होंने सार्वजनिक सेवा प्रारंभ कर दी।
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