क्या यीशु मृत्यु के बाद फिर से जीवित हो उठे थे?
हम सब इस बात पर विचार करते हैं कि हमारी मृत्यु के बाद हमारा क्या होगा। जब हमारे किसी प्रिय का निधन होता है, तो हम अपनी बारी आने पर उससे फिर से मिलने की इच्छा करते हैं। क्या हमारा अपने प्रिय लोगों के साथ आनंदमय पुनर्मिलन हो पाएगा या मृत्यु हमारी सारी चेतनाओं का अंत है?
यीशु ने सिखाया कि हमारे शरीर की मृत्यु के बाद जीवन समाप्त नहीं हो जाता । उन्होंने यह चौंकाने वाला दावा किया: “मैं पुनरुत्थान और जीवन हूँ। मुझ पर विश्वास करने वाले दोबारा जीवित हो उठेंगे, बावजूद इसके कि वे भी दूसरों की तरह कालग्रस्त होते हैं।” उनके निकटतम चश्मदीदों के अनुसार, फिर यीशु ने सूली चढ़ाए जाने और दफ़नाए जाने के तीन दिन बाद, फिर से जीवित होकर मृत्यु के ऊपर शक्ति का प्रदर्शन किया। इसी विश्वास ने लगभग 2000 वर्षों से ईसाईयों को आशा प्रदान की है।
लेकिन कुछ लोगों को मृत्यु पश्चात् जीवन हेतु कोई भरोसा नहीं है। नास्तिक दार्शनिक, बर्टराण्ड रसेल ने लिखा है, “मेरा मानना है कि मैं अपनी मृत्यु के बाद सड़-गल जाऊँगा और मेरा ज़रा भी दंभ नहीं बचेगा।”[1] स्पष्ट रूप से रसेल को यीशु के शब्दों में विश्वास नहीं है।
यीशु के अनुयायियों ने लिखा कि वे सूली पर चढ़ने और दफ़नाए जाने के बाद फिर से जीवित प्रकट हुए। उन लोगों ने न केवल उन्हें देखने बल्कि उनके साथ भोजन करने, उन्हें छूने और उनके साथ 40 दिन बिताने का दावा भी किया।
तो क्या यह केवल एक कहानी है जो समय के साथ बढ़ती चली गई, या यह किसी ठोस प्रमाण पर आधारित है? इस प्रश्न का उत्तर ईसाई धर्म के लिए बुनियादी है। क्योंकि यदि यीशु सचमुच मृत्यु से लौट आए थे, तो यह उनके द्वारा स्वयं अपने बारे में, जीवन का अर्थ और मृत्यु पश्चात् हमारी नियति के बारे में कही गई सभी बातों का सत्यापन कर देगा।
यदि यीशु मृत्यु से वापस लौट आए थे तो केवल वे ही इस बात उत्तर दे सकते हैं कि जीवन का क्या उद्देश्य है और मृत्यु के बाद हमारा किस चीज़ से सामना होगा। दूसरे शब्दों में, यदि यीशु के पुनरुत्थान संबंधी वृत्तांत सही नहीं है, फिर तो ईसाई धर्म का आधार असत्य पर टिका होगा। धर्मशास्त्री आर. सी. एस्प्रौल इसे निम्न प्रकार से व्यक्त करते हैं:
“पुनरुत्थान का दावा ईसाई धर्म के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यदि यीशु को उनकी मृत्यु के बाद परमेश्वर द्वारा वापस भेजा गया, तो फिर उनके पास वह प्रमाण-पत्र एवं प्रमाणन होगा जो किसी भी अन्य धार्मिक नेता के पास नहीं है। बुद्ध मृत हैं। मोहम्मद मृत हैं। मूसा मृत हैं। कन्फ्यूशियस मृत हैं। लेकिन, ईसाई धर्म के…अनुसार, यीशु जीवित हैं।”[2]
अनेक संशयवादी व्यक्तियों ने पुनरुत्थान का खंडन करने का प्रयास किया है। जॉश मैकडोवेल ऐसे ही एक संशयवादी थे, जिन्होंने पुनरुत्थान के प्रमाण पर शोध करने के लिए सात सौ घंटों से ज्यादा समय व्यतीत किए। मैकडोवेल ने पुनरुत्थान की महत्ता के बारे में निम्न बात कही:
“मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि ईसा मसीह का पुनरुत्थान मनुष्यों के मस्तिष्क पर थोपे गए सबसे दुष्ट, अनैतिक, निर्दयी छल में से एक है, या यह इतिहास का सर्वाधिक शानदार तथ्य है।”[3]
तो, क्या यीशु का पुनरुत्थान एक शानदार तथ्य या दुष्ट मिथक है? इसका पता लगाने के लिए, हमें इतिहास के प्रमाणों पर नजर डालना होगा और स्वयं अपना निष्कर्ष निकालना होगा। आइए देखें कि पुनरुत्थान की जाँच-पड़ताल करने वाले संशयवादियों ने स्वयं क्या पता लगाया।
निंदक एवं संशयवादी
लेकिन कोई भी व्यक्ति प्रमाण की निष्पक्ष रूप से पड़ताल करने को इच्छुक नहीं है। बर्टराण्ड रसेल मानते हैं कि यीशु के बारे में उनका विचार ऐतिहासिक तथ्यों से “संबंधित नहीं” था।[4] इतिहासकार जोसेफ कैम्पबेल ने, बगैर किसी प्रमाण का हवाला दिए, टेलीविज़न के अपने श्रोताओं को शांतिपूर्वक बताया कि यीशु का पुनरुत्थान कोई वास्तविक घटना नहीं है।[5] अन्य विद्वान, जैसे कि जीसस सेमीनार के डॉमिनिक क्रॉसन उनसे सहमत हैं।[6] इनमें से कोई भी संशयवादी व्यक्ति अपने विचारों के लिए कोई प्रमाण नहीं देते हैं।
असली संशयवादी, निंदकों के विपरीत, प्रमाण में रुचि रखते हैं। एक संशयवादी पत्रिका में “संशयवादी क्या है?” शीर्षक वाली संपादकीय में निम्नलिखित परिभाषा दी गई है: “संशयवाद… किसी या सभी विचारों पर तर्क का उपयोग है—किसी भी अकारण मानित चीज़ की अनुमति नहीं है। दूसरे शब्दों में… संशयवादी व्यक्ति इस संभावना को समाप्त करते हुए जाँच पड़ताल नहीं करते कि घटना वास्तविक हो सकती है या कोई दावा सच हो सकता है। जब हम कहते हैं कि हम “संशयी” हैं, हमारा तात्पर्य यह होता है कि विश्वास करने के पूर्व हमें अकाट्य प्रमाण देखने चाहिए।”[7]
रसेल और क्रॉसन के विपरीत, कई सच्चे संशयवादी व्यक्तियों ने यीशु के पुनरुत्थान से संबंधित प्रमाण की जाँच की है। इस आलेख हम ऐसे ही कुछ व्यक्तियों की बात सुनेंगे और देखेंगे कि मानव जाति के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न के प्रमाण का किस प्रकार विश्लेषण किया: क्या यीशु वाकई मृत्यु के बाद फिर से जीवित हो उठे थे?
आत्म भविष्यवाणी
अपनी मृत्यु के पहले ही, यीशु ने अपने अनुयायियों को बताया कि उनके साथ विश्वासघात होगा, उन्हें गिरफ़्तार किया जाएगा और सूली पर चढ़ा दिया जाएगा, और वे तीन दिनों के पश्चात् पुनः जीवित हो उठेंगे। यह एक असाधारण योजना है! इसके पीछे क्या था? यीशु कोई मनोरंजन करने वाले व्यक्ति नहीं थे, जो दूसरों की मांग पर प्रदर्शन करते थे; बल्कि, उन्होंने यह विश्वास दिलाया कि उनकी मृत्यु और पुनरुत्थान लोगों को यह साबित कर देगा कि (यदि उनके मस्तिष्क और हृदय मुक्त हो) वे वाकई मसीहा थे।
बाइबिल विद्वान विल्बर स्मिथ ने यीशु के बारे में कहा:
“जब उन्होंने कहा कि वे सूली पर चढ़ाए जाने के तीन दिन बाद, स्वयं पुनः जीवित हो जाएँगे, तो उन्होंने जो कहा उसका साहस केवल कोई मूर्ख ही कर सकता था, जब वह अपने अनुयायियों से दीर्घ निष्ठा की अपेक्षा रखता हो—बशर्ते वह आश्वस्त हो कि वह सचमुच पुनः जीवित होने जा रहा है। मनुष्य को ज्ञात किसी भी धर्म के किसी भी संस्थापक ने ऐसी कोई बात कहने का साहस नहीं जुटा पाया।”[8]
दूसरे शब्दों में, चूँकि यीशु ने अपने अनुयायियों को स्पष्ट रूप से कहा था कि वे अपनी मृत्यु के बाद पुनः जीवित हो उठेंगे, ऐसे में वचन के पालन में असफलता उन्हें ढोंगी साबित कर देती। परंतु हम स्वयं से आगे बढ़ रहे हैं। पुनरुत्थान के पूर्व यीशु की मृत्यु (यदि हुई तो) किस प्रकार हुई?
एक भयावह मृत्यु और फिर . . ?
आपको पता होगा कि यीशु के सांसारिक जीवन का अंतिम समय किस प्रकार का था यदि आपने रोड वारियर/ब्रेव हार्ट मेल गिब्सन द्वारा निर्मित मूवी देखी हो।
अगर आप दपैशनऑफ़दक्राइस्टकेकुछहिस्सोंसेवंचितरहगएथे,क्योंकिआपअपनीआँखोंकोढकेहुएथे(कैमरे पर केवल लाल फिल्टर लगाकर मूवी शूट करना ज्यादा आसान होता), तो केवल अपने न्यू टेस्टामेंट के किसी भी ईसा चरित के पन्नों को पलट कर जानें कि आपसे क्या छूट गया।
जैसा यीशु ने भविष्यवाणी की, उनके अपने ही एक अनुयायी, यहूदा स्कारयोती ने उनके साथ विश्वासघात किया, और वे गिरफ़्तार हुए। रोमन शासक, पीलातुस पिलातुस के अधीन एक झूठे मुक़दमे में उन्हें राजद्रोह का अपराधी पाया गया और लकड़ी के सूली पर मृत्यु की सज़ा सुनाई गई। सूली पर चढ़ाए जाने से पहले, यीशु को एक रोमन चाबुक से बेहरमी से पीटा गया था, जिसमें हड्डी और धातु का टुकड़ा लगा था जो बदन को चीर सकते थे। उनको लगातार घूसे, लात मारे और उन पर थूका गया।
फिर, रोमन जल्लाद ने हथौड़े का उपयोग करके लोहे के कील यीशु की कलाईयों और पैरों में ठोक दिए। अंत में उन्होंने सूली को दो अन्य चोरों को ढोने वाले सूलियों के बीच जमीन के अंदर गड्ढे में गिरा दिया।
यीशु वहाँ छह घंटों तक लटके रहे। फिर, दोपहर 3:00 बजे—यानी लगभग उसी समय जब पासओवर के भेड़ की चढ़ावे के रूप में बलि दी जा रही थी (थोड़ी सी प्रतीकात्मकता, क्या लगता है?)—यीशु चिल्ला उठे, “मैं खत्म हो गया” (अरमी में), और वे चल बसे। अचानक आकाश में अँधेरा छा गया और भूकंप ने धरती को झकझोर दिया।[9]
पीलातुसपीलातुस उनके शरीर को दफ़नाने से पहले इस बात की पुष्टि करना चाहता था कि यीशु सचमुच मर चुके थे। इसलिए एक रोमन पहरेदार ने यीशु के बगल वाले हिस्से में भाला भोंका। शरीर से निकलने वाले खून और पानी का मिश्रण स्पष्ट संकेत था कि यीशु मर चुके थे। फिर यीशु के शरीर को सूली से उतारा गया और अरिमथिया के यूसूफ के कब्र में दफ़ना दिया गया। फिर रोमन पहरेदार ने कब्र को बंद कर दिया, और इसे 24 घंटे पहरेदारी के द्वारा सुरक्षित रखा।
इस दौरान, यीशु के अनुयायी सदमे में थे। डॉ. जे. पी. मोरलैंड बताते हैं कि यीशु द्वारा सूली पर प्राण त्यागने के बाद वे लोग कितने स्तब्ध और व्याकुल थे। “उनमें जरा भी भरोसा नहीं रह गया था कि यीशु परमेश्वर द्वारा भेजे गए हैं। उन्हें यह भी बताया गया था कि परमेश्वर इस मसीहा को मरने नहीं देंगे। इसलिए वे तितर-बितर हो गए। यीशु का आंदोलन अपने मार्ग में पूरी तरह रुक गया।”[10]
सारी आशाएँ गायब हो गईं। रोम और यहूदी नेता जीत गए—या ऐसा प्रतीत हो रहा था।
कुछ घटित हुआ
लेकिन यह अंत नहीं था। यीशु का आंदोलन (स्पष्टतः) गायब नहीं हो गया, और वास्तव में ईसाई धर्म आज सबसे विशाल धर्म के रूप में व्याप्त है। इसलिए, हमें यह जानने की जरूरत है कि यीशु के शरीर को सूली को उतारने और कब्र में दफ़नाने के बाद क्या हुआ।
न्यूयॉर्कटाइम्स के एक लेख में, पीटर स्टाइनफ़ेल्स यीशु की मृत्यु के पश्चात् तीन दिन होने वाली अचंभित करने वाली घटनाओं का उल्लेख करते हैं: “यीशु को मार डालने के तुरंत बाद, उनके अनुयायी अचानक प्रेरित हो करके विफल और दुबक जाने वाले समूह से ऐसे व्यक्ति में परिवर्तित हो गए जिनके जीवित यीशु और भावी साम्राज्य के बारे में संदेश, और अपना जीवन जोखिम में डाल करके दिए गए उपदेश ने अंततः एक साम्राज्य को बदल दिया। कुछ तो घटित हुआ। … लेकिन क्या?”[11] यह वह प्रश्न है जिसका उत्तर हमें तथ्यों की जाँच-पड़ताल करके देना है।
यीशु के तथाकथित पुनरुत्थान के लिए केवल पाँच विश्वास करने योग्य स्पष्टीकरण हैं, जैसा कि न्यू टेस्टामेंट में वर्णित है:
1. वास्तव में यीशु सूली पर मरे ही नहीं।
2. “पुनरुत्थान” एक षड्यंत्र था।
3. अनुयायी मतिभ्रमित हो गए थे।
4. वृत्तांत किंवदंती है।
5. ऐसा वाकई हुआ था।
आइए एक-एक कर इन विकल्पों पर नजर डालते हैं और देखते हैं कि इनमें से कौन सबसे तथ्यों के मुकाबले सबसे उपयुक्त है।
क्यायीशु की मृत्यु हुई थी?
“मार्ले दरवाजे की कील से भी ज्यादा मृत था, उस बारे में कोई शक ही नहीं था।” चार्ल्स डिकेन्स की एकक्रिसमसकेरोल इसी प्रकार आरंभ होती है, लेखक आगे शीघ्र घटित होने वाले अलौकिक स्वरूप के बारे में किसी प्रकार की ग़लतफ़हमी नहीं होने देना चाहते थे। उसी प्रकार, CSI की भूमिका आरंभ करने और पुनरुत्थान हेतु प्रमाण एकत्र करने से पहले, हमें पहले यह स्थापित करना पड़ेगा कि वाकई में एक मृत शरीर था। क्योंकि, अकसर कुछ समाचार पत्र ऐसी ख़बरें छापते हैं, जिसमें किसी मुर्दाघर में “लाश” को हिलते-डुलते और ठीक होते पाया गया। क्या ऐसा ही कुछ यीशु के साथ होने की संभावना है?
कुछ लोगों का कहना है कि यीशु सूली पर चढ़ाने के बाद भी जीवित ही थे और कब्र में ठंडी, नम हवाओं के कारण पुनः सचेत हो गए –“वाह, मैं कितनी देर तक बेहोश था?” लेकिन यह सिद्धांत चिकित्सकीय प्रमाण के मुकाबले ठहर नहीं पाता। जर्नलऑफदअमेरिकनमेडिकलएसोसिएशन के एक लेख में यह बताया गया है कि क्यों यह तथाकथित “मूर्छा सिद्धांत” असमर्थनीय है: “स्पष्ट रूप से, ऐतिहासिक और चिकित्सकीय प्रमाण का महत्व दर्शाता है कि यीशु मर चुके थे। …उनके दाएँ पसलियों के बीच से भोंका हुआ भाला, संभवतः न केवल उनके दाएँ फेफड़े, बल्कि पेरिकार्डियम और ह्रदय को भी छेद दिया होगा तथा उनकी मृत्यु सुनिश्चित कर दी होगी।”[12] लेकिन इस निर्णय पर संशय उचित ही होगा, क्योंकि यह मामला 2,000 वर्ष पुराना है। कम से कम, हमें अन्य मतों की जरूरत होगी।
उन्हें खोजने के लिए एक स्थान यीशु के समय के गैर ईसाई इतिहासकारों का वृत्तांत है। इनमें से तीन इतिहासकारों ने यीशु की मृत्यु का उल्लेख किया है।
- ल्यूसियन (लगभग 120–180 ईसवी के बाद, यीशु का उल्लेख सूली पर चढ़ाए गए दार्शनिक के रूप में किया।[13]
- जोसेफस (लगभग 37–लगभग 100 ईसवी) ने लिखा, “इस दौरान वहाँ यीशु प्रकट हुए, एक ज्ञानी व्यक्ति, क्योंकि वह अद्भुत कर्मों के कर्ता थे। जब पीलातुस ने उन्हें सूली पर चढ़ाए जाने की सज़ा सुनाई, तो हमारे बीच के अग्रणी व्यक्तियों ने, जिन्होंने उन पर आरोप लगाए थे, जो उनसे प्रेम करते थे उन्होंने ऐसा करना बंद नहीं किया।”[14]
- टेसिटस (लगभग 56–लगभग 120 ईसवी) ने लिखा, “क्रिस्टस, जिससे इस नाम का उद्गम हुआ, को हमारे राजा के पैरवीकार …पीलातुस पिलातुस के हाथों अत्यधिक कड़ी सज़ा का सामना करना पड़ा।”[15]
यह कुछ-कुछ किसी लेखागार में जाने और यह जानने जैसा है कि पहली सदी में बसंत के एक दिन, दजेरूसेलमपोस्ट ने प्रथम पृष्ठ पर एक कहानी छापी कि यीशु को सूली पर चढ़ा दिया गया और उनकी मृत्यु हो गई। कोई बुरा जासूसी कार्य नहीं, और काफी निर्णायक भी।
वास्तव में, ईसाईयों, रोमन, या यहूदियों के ऐतिहासिक वृत्तांतों में यीशु की मृत्यु या उन्हें दफ़नाए जाने के बारे में कोई विवाद नहीं है। यहाँ तक की क्रॉसन, पुनरुत्थान का संशयवादी भी, इस बात से सहमत है कि यीशु सचमुच में थे और उनकी मृत्यु हुई थी। “उन्हें सूली पर चढ़ाया गया यह उतना ही निश्चित है, जितना कोई भी ऐतिहासिक चीज़ हो सकता है।”[16] इन प्रमाणों के आलोक में, हमारे पास अपने पाँच विकल्पों में से पहले को नकारने का बढ़िया आधार है। यीशु की मृत्यु निःसंदेह हुई थी, “इसमें कोई संदेह नहीं था।”
खाली कब्र का मामला
कोई भी गंभीर इतिहासकार इस पर संदेह नहीं करता है कि जब यीशु को सूली से उतारा गया था तो उनकी मृत्यु हो गई थी। हालांकि, बहुतों ने यह सवाल उठाया है कि यीशु का शरीर कब्र से कैसे गायब हो गया। अंग्रेजी पत्रकार डॉ. फ्रैंक मॉरिसन ने आरंभ में यह सोचा था कि पुनरुत्थान एक मिथक या छल है, और इसका खंडन करने वाले पुस्तक लिखने के लिए शोध आरंभ कर दिया।[17] पुस्तक बहुत प्रसिद्ध हुआ, लेकिन इसके मूल कारणों के अलावा अन्य कारणों से, जैसा कि हम देखेंगे।
मॉरिसन ने खाली कब्र के मामले को हल करने के प्रयास से शुरुआत की। कब्र महासभा के सदस्य, अरिमथिया के यूसूफ की संपत्ति थी। उस दौरान इज़राइल में, परिषद में होना रॉक स्टार होने के समान था। हर कोई जानता था कि परिषद में कौन था। यूसूफ को सचमुच का व्यक्ति होना चाहिए। अन्यथा, यहूदी नेताओं ने पुनरुत्थान को नकारने के प्रयास में कहानी को ढोंग के रूप में उजागर कर दिया होता। साथ ही, यूसूफ की कब्र किसी प्रसिद्ध स्थान पर होती और आसानी से पहचानने योग्य होती, इसलिए यीशु के “कब्रिस्तान में खो जाने” के किसी भी विचार को खारिज करने की आवश्यकता होगी।
मॉरिसन इस बात से आश्चर्यचकित थे कि यीशु के दुश्मनों ने “खाली कब्र के मिथक” को क्यों कायम रखने दिया यदि यह सही नहीं था। यीशु के शरीर की खोज संपूर्ण षड्यंत्र को तत्काल ही समाप्त कर देती।
और ऐतिहासिक रूप से यीशु के दुश्मनों के बारे में जो ज्ञात है कि उन्होंने यीशु के शिष्यों पर शरीर को चुराने का आरोप लगाया था, एक आरोप जो स्पष्ट रूप से इस साझे विश्वास का संकेत देता है कि कब्र खाली था।
पश्चिमी मिशिगन विश्वविद्यालय में प्रचीन इतिहास के प्रोफेसर डॉ. पॉल एल मायर ने उसी प्रकार कहा, “यदि सभी प्रमाणों पर ध्यानपूर्वक एवं न्यायपूर्ण तरीके से विचार किया जाए, तो इस निर्णय पर पहुँचना वाकई उचित ठहराए जाने योग्य है कि … जिस कब्र में यीशु को दफनाया गया था वह वास्तव में प्रथम ईस्टर की सुबह में खाली था। और इस कथन का खंडन करने वाला … कणमात्र प्रमाण भी अभी तक खोजा नहीं गया है।”[18]
यहूदी नेता निस्तब्ध थे, और उन्होंने अनुयायियों पर यीशु के शरीर की चोरी का आरोप लगाया। परन्तु रोमन ने प्रशिक्षित पहरेदारों की एक टुकड़ी (4 से 12 सिपाहियों की) को कब्र की 24-घंटे रखवाली के लिए नियुक्त किया था। मॉरिसन ने प्रश्न किया, “कैसे उन पेशवरों ने यीशु के शरीर को नष्ट होने दिया?” यह किसी के लिए भी असंभव था कि वह रोमन पहरेदारों के बीच से निकल जाए और दो टन के पत्थर को ले हिला पाए। इसके बावजूद पत्थर को हटाया गया था और यीशु का शरीर गायब हो गया था।
यदि यीशु का शरीर कहीं और मिला होता, तो उनके दुश्मन तत्काल ही पुनरुत्थान को ढोंग साबित कर देते। टॉम एंडरसन, कैलिफोर्निया सुनवाई वकील एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष, ने इस तर्क की शक्ति का सार प्रस्तुत किया:
“इतनी अच्छी तरीके से प्रकाशित किसी घटना के साथ, क्या आपको यह उचित नहीं लगता कि कोई एक इतिहासकार, एक प्रत्यक्षदर्शी, एक विरोधी यह दर्ज करता कि उसने यीशु के शरीर को देखा था? …जब पुनरुत्थान के विरोध में गवाही की बात हो तो इतिहास का यह मौन कर्णभेदी हो जाता है।”[19]
इसलिए, प्रमाण के रूप शरीर की अनुपस्थिति, और ज्ञात कब्र के स्पष्ट रूप से खाली होने के कारण, मॉरिसन ने यीशु के शरीर का कब्र से किसी तरह गायब हो जाने को एक ठोस रूप में स्वीकार किया।
कब्र की लूट?
ज्यों-ज्यों मॉरिसन अपनी जाँच-पड़ताल जारी रखा, उन्होंने यीशु के अनुयायियों के इरादों की पड़ताल शुरु की। शायद पुनरुत्थान असल में चुराया गया शरीर था। परन्तु यदि ऐसा होता, तो कोई कैसे पुनर्जीवित यीशु के सभी प्रकटनों का जवाब दे? हिस्ट्रीऑफदज्यूज़ में, इतिहासकार पॉल जॉनसन लिखते हैं, “यह मायने नहीं रखता कि उनकी मृत्यु किन परिस्थितियों में हुई, बल्कि यह तथ्य मायने रखता है कि लोगों के बढ़ते हुए समूह द्वारा यह व्यापक और हठपूर्वक विश्वास किया जाता था कि वे पुनः जीवित हो उठे थे।”[20]
कब्र सचमुच में खाली था। परन्तु यह महज शरीर की अनुपस्थिति ही नहीं थी, जिसने यीशु के अनुयायियों को प्रेरित किया हो (विशेष रूप से यदि उन्होंने ने उसे चुराया था)। कुछ तो बहुत आश्चर्यजनक हुआ था, क्योंकि यीशु के अनुयायियों ने मातम मनाना बंद कर दिया, छुपना बंद कर दिया, और बिना भय के दावा करने लगे कि उन्होंने यीशु को जीवित देखा था।
प्रत्येक प्रत्यक्षदर्शी वृत्तांत यह बताता है कि यीशु अपने अनुयायियों, महिलाओं के सामने पहले अचानक सशरीर प्रकट हुए। मॉरिसन यह जानने के लिए उत्सुक थे कि षड्यंत्रकारियों ने इस षड्यंत्र के केंद्र में महिलाओं को क्यों रखा। पहली सदी में, महिलाओं के पास वास्तव में कोई अधिकार, व्यक्तित्व, या प्रतिष्ठा नहीं थी। यदि षड्यंत्र को सफल होना था, तो मॉरिसन तर्क करते हैं कि षड्यंत्रकारी यीशु को पहले जीवित देखने के लिए पुरुषों का वर्णन करते, न की महिलाओं का। और फिर भी हम सुनते हैं कि महिलाओं ने उन्हें छुआ, उनसे बात की, और वे पहली थीं, जिन्होंने खाली कब्र पाया।
बाद में, प्रत्यक्षदर्शी वृत्तांतों के अनुसार, सभी अनुयायियों ने यीशु को दस से ज्यादा भिन्न समय में देखा। वे लिखते हैं कि उन्होंने अपने हाथ और पैर दिखाए तथा उन्हें छूने के लिए कहा। और उन्होंने कथित तौर पर उनके साथ खाया और बाद में एक ही समय अपने 500 से अधिक अनुयायियों के सामने जीवित प्रकट हुए।
कानूनी विद्वान जॉन वारविक कहते हैं, “56 ईसवी में [धर्म प्रचारक पॉल ने लिखा कि 500 से ज्यादा लोगों ने पुनर्जीवित यीशु को देखा और उनमें से ज्यादातर अभी भी जीवित हैं। (1 कुरिन्थियां 15:6 अनुवर्ती पन्ने)। यह विश्वसनीयता की सीमा से परे है कि प्राचीन काल के ईसाईयों ने इस तरह की कहानी गढ़ी हो और उसके बाद उन लोगों के बीच इसका प्रचार किया हो जो बस यीशु के शरीर को प्रदर्शित करके आसानी से उसका खंडन कर सकते थे।[21]
बाइबिल विद्वान गिज़्लर और ट्यूरेक सहमत हैं। “यदि पुनरुत्थान नहीं हुआ था, तो ईसाई धर्म प्रचारक, पॉल ऐसे तथाकथित प्रत्यक्षदर्शियों की सूची क्यों देते? इस घोर झूठ के कारण वे कुरिन्थियों के पाठकों के समक्ष अपनी सारी विश्वसनीयता तत्काल खो देते।”[22]
सीजेरिया में पतरस ने एक भीड़ को कहा कि उन्हें और अन्य अनुयायियो को इतना भरोसा क्यों था कि यीशु जीवित थे।
हम ईसाई धर्म प्रचारक पूरे इज़राइल और यरुशलम में किए गए उनके सभी कार्यों के गवाह हैं। उन लोगों ने उन्हें सूली पर लटका कर मार डाला, परन्तु परमेश्वर तीन दिन बाद पुनर्जीवित हो जाते हैं…. हम लोगों ने ही उनके पुनर्जीवित होने के बाद उनके साथ खाना पिया था। (प्रेरितों के काम 10:39-41)
ब्रिटिश बाइबिल विद्वान माइकल ग्रीन ने कहा, “यीशु का प्रकट होना प्राचीन काल की कोई अन्य चीज़ के समान ही प्रमाणित है। …उनके होने के बारे में कोई भी विवेकपूर्ण संदेह नहीं हो सकता है।”[23]
अंत तक अटल
जैसे कि चश्मदीद के वृत्तांत मॉरिसन के संशयवाद को चुनौती देने के लिए पर्याप्त नहीं थे, वे उनके अनुयायियों के व्यवहार से भी चकित थे। इतिहास का एक तथ्य जिसने तमाम इतिहासकारों, मनोवैज्ञानिकों, और संशयवादियों को समान रूप से चकरा दिया, वह यह है कि ये 11 कायर अचानक ही अपमान, अत्याचार और मृत्यु के लिए तैयार थे। यीशु के एक अनुयायी को छोड़ शेष सभी शहीद के रूप में मारे गए थे। क्या वे ये जानते हुए भी कि उन्होंने शरीर निकाल लिया है, केवल झूठ के लिए इतना कुछ करते?
11 सितंबर को मुस्लिम शहीदों ने यह साबित किया कि कुछ लोग उन गलत ध्येय के खातिर मर जाएँगे जिनमें वे विश्वास करते हैं। फिर भी एक ज्ञात झूठ हेतु शहीद होने के लिए तैयार होना पागलपन है। जैसा कि पॉल लिटिल लिखते हैं, “मनुष्य उस विश्वास के लिए प्राण त्याग सकते हैं, जिन्हें वे सच मानते हैं, हालांकि वास्तव में वह गलत निकल सकता है। हालांकि, वे किसी ऐसी चीज़ के लिए जीवन नहीं त्यागते, जिनके बारे में उन्हें पता हो कि वह झूठ है।”24 यीशु के अनुयायियों ने इस सच्चे विश्वास के अनुकूल व्यवहार किया कि उनके नेता जीवित थे।
किसी ने भी इस बात की पर्याप्त रूप से व्याख्या नहीं की कि क्यों अनुयायी एक ज्ञात झूठ के लिए मरने को तैयार थे। परन्तु फिर भी यदि उन लोगों ने यीशु के पुनरुत्थान के बारे में षड्यंत्र किया था, तो कैसे वे लोग, धन या प्रतिष्ठा के लिए बिके बगैर, इस षड्यंत्र को दशकों तक कायम रख पाए? मोरलैंड लिखते हैं, “जो अपनी निजी हित के लिए झूठ बोलते हैं, वे बहुत दिनों तक एक साथ नहीं रहते, विशेष रूप से तब जब कठिनाई लाभ को कम कर देती हो।”[24]
निक्सन प्रशासन के पूर्व “ खतरनाक व्यक्ति”, वाटरगेट कांड में फंसे चक कोल्सन ने अनेक लोगों द्वारा लंबी अवधि के लिए झूठ को बनाए रखने की कठिनाई के बारे में इशारा किया है।
“मैं जानता हूँ कि पुनरुत्थान एक सत्य है, और वाटरगेट ने मेरे लिए यह साबित किया है। कैसे? क्योंकि 12 लोगों ने गवाही दी कि उन्होंने यीशु को मृत्यु से वापस आते देखा है, और वे उसका दावा 40 वर्षों तक करते रहे, एक बार भी इस बात का खंडन नहीं किया। उनमें से सभी पीटे गए, प्रताड़ित हुए, पत्थर मारे गए और जेल में डाले गए। अगर यह सही नहीं होता तो वे सहन नहीं कर पाते। वाटरगेट ने विश्व के 12 सबसे शक्तिशाली लोगों को आपत्ति में डाला था—और वे तीन सप्ताह तक झूठ बनाए नहीं रख सके। आप मुझे बता रहे हैं कि 12 ईसाई धर्म प्रचारक 40 वर्षों तक एक झूठ बनाए रख सके? बिल्कुल असंभव।”[25]
कुछ ऐसा हुआ जिसने इन पुरुषों एवं महिलाओं का सब कुछ बदल दिया था। मॉरिसन मानते हैं, “जिस किसी ने इस समस्या का सामना किया है उन्हें देर-सबेर ऐसे तथ्य से सामना होता है जिसकी व्याख्या नहीं हो सकती। …यह तथ्य है कि …एक गहरी आस्था लोगों के छोटे समूह में घर कर गई—एक बदलाव जो इस बात को प्रमाणित करता है कि यीशु कब्र से वापस लौट आए थे।”[26]
क्या अनुयायी मतिभ्रमित हो गए थे
लोग अभी भी समझते हैं कि उन्होंने एक मोटे, सफेद बालों वाले एल्विस को डंकिन डोनट्स में घुसते देखा। और कुछ ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि उन्होंने पिछली रात एलियंस के साथ बड़े जहाज पर बिताई और उन्हें अकथ्य परीक्षण से गुजरना पड़ा। कभी-कभी कुछ विशेष लोग वही चीज़ें “देखते” हैं जो वे देखना चाहते हैं, चीज़ें जो वास्तव में होती ही नहीं हैं। और इसलिए कुछ लोग दावा करते हैं कि अनुयायी सूली की घटना से इतने परेशान थे कि उनकी यीशु को जीवित देखने की इच्छा के कारण सामूहिक मतिभ्रम हुआ। विश्वास योग्य है?
ईसाई धर्म सलाहकारों के अमेरिकी संगठन के पूर्व अध्यक्ष, मनोवैज्ञानिक गैरी कोलिन्स से अनुयायियों के व्यवहार में मूल बदलाव के पीछे मतिभ्रम की संभावना के बारे में प्रश्न पूछा गया। कोलिन्स ने टिप्पणी की, “मतिभ्रम व्यक्तिगत घटनाएँ होती हैं। उनकी स्वयं की प्रकृति के अनुसार, एक समय में केवल एक ही व्यक्ति किसी विशेष मतिभ्रम को देख सकता है। वे निश्चित रूप से ऐसा कुछ नहीं है, जो लोगों के समूह द्वारा देखा जा सकता हो।”[27]
मतिभ्रम की दूर तक संभावना भी नहीं है, मनोवैज्ञानिक थॉमस जे. थोरबर्न के अनुसार। “यह पूरी तरह से समझ से बाहर है कि …औसत समझदारी वाले, पाँच सौ लोगों को…सभी प्रकार की इन्द्रिय सम्बन्धी प्रभावों—दृश्यात्मक, श्रवण-संबंधी, स्पर्श-संबंधी सभी का अनुभव हो—और कि ये सभी…अनुभव पूरी तरह से मतिभ्रम पर निर्भर … हो।”[28]
इसके अतिरिक्त, मतिभ्रम के मनोविज्ञान में, व्यक्ति को उस मानसिक स्थिति में होना चाहिए जहाँ उसे किसी व्यक्ति को देखने की इतनी इच्छा होती है कि उनका मस्तिष्क इसकी कल्पना करने लगता है। प्रारंभिक ईसाई धर्म के दो प्रमुख नेता, जेम्स एवं पॉल, दोनों का सामना पुनर्जीवित यीशु से हुआ, और दोनों ने ही इस आनंद की उम्मीद, या आशा नहीं की थी। ईसाई धर्म प्रचारक पॉल ने वास्तव में ईसाईयों के आरंभिक उत्पीड़न का नेतृत्व किया, और उनका मत परिवर्तन व्याख्या न करने योग्य बना हुआ है, सिवाय उनके स्वयं के कथन के कि यीशु उनके सामने, पुनर्जीवित रूप में, प्रकट हुए।
असत्य से किंवदंती की ओर
कुछ न मानने वाले संशयवादी व्यक्तियों ने पुनरुत्थान के वृत्तांत को एक ऐसे किंवदंती से जोड़ देते हैं जो एक या अधिक लोगों द्वारा झूठ बोलने या यह सोचने के साथ आरंभ हुआ कि उन्होंने पुनर्जीवित यीशु को देखा। समय गुजरने के साथ-साथ, चारो तरफ प्रचलित हो जाने के कारण किंवदंती को अधिक विशाल और सुंदर हो जाना चाहिए था। इस सिद्धांत में, यीशु का पुनरुत्थान राजा आर्थर के गोलमेज, छोटे जॉर्जी वाशिंगटन के झूठ न बोल पाने की अक्षमता, और सोशल सेक्युरिटी के संपन्न हो जाने के भरोसे के समकक्ष है।
लेकिन इस सिद्धांत के साथ तीन प्रमुख समस्याएँ हैं।
1. किंवदंतियाँ तब बिरले ही विकसित होती हैं, जब उनका खंडन करने के लिए अनेक चश्मदीद जीवित हों। प्राचीन रोम एवं यूनान के एक इतिहासकार, ए. एन. शेर्विन-व्हाइट, ने तर्क दिया कि पुनरुत्थान का समाचार इतनी जल्दी और तेज़ी से फैला कि वह किंवदंती नहीं हो सकता।[29]
2. किंवदंतियाँ जबानी परंपरा के कारण विकसित होती हैं और समकालीन ऐतिहासिक दस्तावेजों के साथ नहीं आती, जिनका सत्यापन किया जा सकता हो। इसके बावजूद पुनरुत्थान के तीन दशकों के अंदर ही ईसा चरित लिखे गए।[30]
3. किंवदंती सिद्धांत, खाली कब्र का तथ्य या यीशु के जीवित होने से संबंधित ऐतिहासिक रूप से पुष्ट धर्म प्रचारकों की आस्था का पर्याप्त रूप से व्याख्या नहीं कर पाता।[31]
ईसाई धर्म क्यों विजयी हुआ?
मॉरिसन इस तथ्य से आश्चर्यचकित थे कि “एक छोटा महत्वहीन आंदोलन यहूदी संस्थाओं की धूर्ततापूर्ण चंगुल, साथ ही साथ रोमन साम्राज्य के पराक्रम से भी जीत गया।” इतनी सारी असंभावनाओं के बावजूद, इसकी जीत क्यों हुई?
उन्होंने लिखा, “बीस वर्षों के अंदर, इन गैलिलियाई किसानों के दावे ने यहूदी चर्च को बाधित किया। … पचास वर्षों के अंदर ही इसने रोमन साम्राज्य की शांति को भंग करना आरंभ कर दिया। जब हम सब कुछ कह चुके हैं जो कहा जा चुका है … हमारा सामना अब तक के सबसे बड़े रहस्यों से होता है। यह क्यों विजयी रहा?”[32]
हर हालत में, ईसाई धर्म को तभी समाप्त हो जाना चाहिए था जब यीशु सूली पर चढ़ाए गए थे और उनके अनुयायी अपनी जान बचाने के लिए भाग निकले। लेकिन धर्म प्रचारकों ने एक विकासशील ईसाई धर्म आंदोलन की स्थापना की।
जे. एन. डी. एंडरसन ने लिखा, “एक ऐसे चित्र की मनोवैज्ञानिक विसंगति की कल्पना करें, जिसमें एक ऊपरी कमरे में दुबके पराजित कायरों का एक समूह जो अगले ही दिन एक ऐसे जनसमूह में परिवर्तित हो जाता है जिसे कोई उत्पीड़न भी मौन न कर पाए—और फिर इस नाटकीय परिवर्तन का कारण किसी विश्वसनीय चीज़ नहीं, बल्कि तुच्छ पाखंड को बताना। … इसका बिल्कुल ही कोई मतलब नहीं निकलता है।”[33]
कई विद्वानों का मानना है कि (प्राचीन टीकाकार के शब्दों में) “शहीदों का लहू चर्च का बीज बना।” इतिहासकार विल ड्यूरंट का कहना है, “सीज़र और यीशु एक अखाड़े में मिले और यीशु विजयी रहे।”[34]
एक आश्चर्यजनक निष्कर्ष
मिथक, मतिभ्रम और दोषपूर्ण शव-परीक्षा को दरकिनार करते हुए, खाली कब्र के निर्विवाद प्रमाण, पुनरुत्थान के पर्याप्त चश्मदीद, और गूढ़ रूपांतरण तथा उनको देखने वाले लोगों का दुनिया पर प्रभाव के साथ, मॉरिसन को यह भरोसा हो गया कि यीशु के पुनरुत्थान के बारे में उनका पूर्वकल्पित पूर्वाग्रह गलत था। उन्होंने अपने निष्कर्षों को विस्तारपूर्वक दर्ज करने के लिए हूमूव्डदस्टोन?नामकएक अलग पुस्तक लिखना आरंभ किया। मॉरिसन, सुराग दर सुराग, प्रमाणों का पीछा करते चले गए जब तक मामले की सच्चाई उन्हें स्पष्ट नहीं हो गई। उन्हें आश्चर्य हुआ कि प्रमाण पुनरुत्थान के प्रति विश्वास की ओर संकेत कर रहे थे।
अपने पहले ही अध्याय, “द बुक दैट रेफ़्यूज़्ड दू बी रिटेन” में इस पूर्व संशयवादी व्यक्ति ने इस बात का वर्णन किया कि किस प्रकार प्रमाण ने उन्हें यीशु के पुनरुत्थान के वास्तविक ऐतिहासिक घटना होने के बारे में भरोसा दिलाया। “यह कुछ ऐसा हुआ जैसे कोई व्यक्ति जंगल पार करने के लिए चिरपरिचित तथा अकसर प्रयुक्त मार्ग पर निकला और अचानक एक ऐसे स्थान पर जा पहुँचा जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी।”[35]
मॉरिसन अकेले नहीं थे। अनगिनत संशयवादी व्यक्तियों ने यीशु के पुनरुत्थान के प्रमाणों की जाँच-पड़ताल की, और स्वीकार किया कि यह मानव इतिहास के सर्वाधिक आश्चर्यजनक तथ्यों में से एक है। लेकिन यीशु का पुनरुत्थान एक सवाल भी खड़ा करता है: यीशु द्वारा मृत्यु को पराजित करने के तथ्य का मेरे जीवन से क्या लेना-देना? इस प्रश्न का उत्तर न्यू टेस्टामेंट ईसाई धर्म का सार है।
क्या यीशु ने बताया कि हमारी मृत्यु के बाद क्या होता है?
यदि यीशु सचमुच मृत्यु से वापस लौट आए थे, तो केवल उन्हें पता होना चाहिए कि दूसरी तरफ क्या है। यीशु ने जीवन का अर्थ और हमारे भविष्य के बारे में क्या बताया? क्या परमेश्वर तक पहुँचने के अनेक मार्ग हैं या यीशु ने केवल एक मार्ग के बारे में बताया था? चौंका देने वाले उत्तरों के लिए “यीशु क्यों?” पढ़ें।
क्या यीशु जीवन को एक उद्देश्य प्रदान कर सकते हैं?
“यीशु क्यों?” उन प्रश्नों की तरह देखता है कि क्या यीशु आज प्रासंगिक हैं। क्या यीशु जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं: “मैं कौन हूँ?” “मैं यहाँ क्यों हूँ?” और, “मैं कहाँ जाने वाला हूँ?” प्राणहीन गिरजे और सूलियों ने कुछ लोगों को ऐसा विश्वास दिलाया कि वे ऐसा नहीं कर सकते, और कि यीशु ने हमें अनियंत्रित दुनिया से निपटने के लिए अकेला छोड़ दिया। परंतु यीशु ने जीवन और धरती पर हमारे उद्देश्य के बारे में कुछ दावे किए, जिनकी जाँच उन्हें अस्नेही या अशक्त बताने से पहले करने की जरूरत है। यह लेख इस रहस्य का पड़ताल करता है कि यीशु धरती पर क्यों आए।
यहाँक्लिककरकेजानेकिकिसप्रकारयीशुजीवनकोएकउद्देश्यप्रदानकरसकतेहैं।