क्या यीशु भगवान हैं?
क्या आप कभी ऐसे व्यक्ति से मिले हैं, जो कहीं भी जाने पर आकर्षण का केंद्र बना रहता है? कुछ गूढ़, अवर्णनीय विशेषताएँ उन्हें बाकी सभी मनुष्यों से अलग करती है। दो हजार वर्ष पूर्व ईसा मसीह की स्थिति कुछ ऐसी ही थी। लेकिन यह केवल यीशु का व्यक्तित्व नहीं था, जिसने उनसे प्रेम करने वाले लोगों का मंत्रमुग्ध किया। उनके वचनों और जीवन के साक्षी व्यक्ति हमें बताते हैं कि नाज़ारेथ के यीशु में कुछ बातें ऐसी थीं, जो शेष लोगों से अलग थीं।
यीशु का एकमात्र परिचय पत्र वे स्वयं थे। उन्होंने कोई पुस्तक नहीं लिखी, किसी सेना का नेतृत्व नहीं किया, किसी राजनीतिक कार्यालय में नहीं रहे, या किसी संपत्ति के मालिक थे। उन्होंने अधिकतर अपने गाँव से सैकड़ों मील के अंदर ही यात्रा की, और उन लोगों को आकर्षित किया, जो उनके उत्तेजक शब्दों और तेजस्वी कार्यों से चकित हो जाते थे।
इसके बावजूद यीशु को देखने और सुनने वालों के लिए उनकी महानता प्रत्यक्ष थी। और यद्यपि अधिकतर महान लोग अंततः इतिहास के पन्नों में खो जाते हैं, यीशु अभी भी हज़ारों पुस्तकों और अद्वितीय मीडिया विवाद के केंद्र बने हुए हैं। और उनमें से अधिकतर विवाद यीशु के स्वयं के बारे में किए गए मौलिक दावों के इर्दगिर्द घूमते हैं—वे दावे, जिन्होंने उनके अनुयायियों और विरोधियों दोनों को विस्मित किया।
ये यीशु के अनूठे दावे ही थे, जिनके कारण रोमन अधिकारी और यहूदी पुरोहित दोनों उन्हें खतरे की तरह देखने लगे। हालांकि, वे बिना प्रत्यायक या राजनीतिक आधार वाले बाहरी व्यक्ति थे, तीन वर्षों के अंदर ही, यीशु ने अगली 20 सदियों के लिए दुनिया को बदल दिया। अन्य नैतिक एवं धार्मिक नेताओं ने भी प्रभाव छोड़ा है—लेकिन नाज़ारेथ के अज्ञात बढ़ई के बेटे जैसा नहीं।
ईसा मसीह के बारे में ऐसी क्या बात थी जिसने यह अंतर पैदा किया? क्या वे केवल एक महान व्यक्ति थे, या इससे अधिक कुछ और भी थे?
ये प्रश्न इस बात के केंद्र तक पहुँचते हैं कि यीशु वाकई में कौन थे। कुछ लोगों का विश्वास है कि वे एक महान नैतिक गुरु थे, अन्यों का मानना है कि वे बस दुनिया के सबसे बड़े धर्म के नेता थे। लेकिन अनेक व्यक्ति इनसे ज्यादा चीज़ों पर विश्वास करते हैं। ईसाईयों का विश्वास है कि वास्तव में ईश्वर मानव रूप में हमारे बीच आए। और उनका मानना है कि प्रमाण इन बातों का समर्थन करते हैं।
यीशु के जीवन और कथनों का ध्यानपूर्वक जाँच करने के बाद, कैम्ब्रिज के पूर्व प्रोफेसर और संशयवादी, सी. एस. लुईस उनके बारे में एक चौंकाने वाले निष्कर्ष पर पहुँचे जिसने उनका जीवन ही बदल दिया। तो यीशु वाकई में कौन थे? अनेक लोगों उत्तर देंगे कि यीशु एक महान नैतिक गुरु थे। जिस समय हम विश्व के सबसे विवादास्पद व्यक्ति पर गहरी नज़र डालते हैं, हम निम्न प्रश्न पूछ कर आरंभ करते हैं: क्या यीशु केवल एक महान नैतिक गुरु ही थे?
महान नैतिक गुरु?
दूसरे धर्म के लोग भी मानते हैं कि यीशु एक महान नैतिक गुरु थे। भारतीय नेता, महात्मा गांधी, यीशु के पवित्र जीवन और प्रकांड उक्तियों की अत्यधिक तारीफ़ करते हैं।[1]
इसी प्रकार, यहूदी विद्वान जोसफ़ क्लौस्नर ने लिखा, “यह व्यापक रूप से माना जाता है…कि यीशु ने पवित्रतम और सर्वोत्कृष्ट आचार नीतियों का पाठ पढ़ाया…जो प्राचीन काल के सबसे ज्ञानी लोगों के नैतिक धर्मादेशों और सूक्तियों को दूर अंधेरे में धकेल देते हैं।”[2]
पर्वत पर दिए गए यीशु के उपदेश को किसी व्यक्ति द्वारा मानवीय आचार नीतियों पर दिया गया सबसे सर्वश्रेष्ठ शिक्षण कहा जाता है। वास्तव में, आज हम “समान अधिकारों” के बारे में जितना भी जानते हैं वह सब यीशु की शिक्षा का परिणाम है। गैर ईसाई इतिहासकार, विल ड्यूरंट ने यीशु के बारे में कहा कि “उन्होंने ‘समता के अधिकारों’ के लिए जीवन निर्वाह किया और निरंतर संघर्ष करते रहे; आधुनिक काल में उन्होंने साइबेरिया भेज दिया जाता। ‘वह जो आप सब में सबसे महान है, उसे अपना सेवक बनने दें’—यह सारे राजनीतिक पांडित्य, सारे विवेक का व्युत्क्रम है।”[3]
अनेक लोगों ने, गांधी की तरह, यीशु की आचार नीति पर शिक्षा को उनके स्वयं के बारे में दावे से अलग करने का प्रयास किया है, यह मानते हुए कि वे बस एक महान व्यक्ति थे जिन्होंने उच्च नैतिक सिद्धांत सिखाए। यही दृष्टिकोण अमेरिका के संस्थापकों में से एक, राष्ट्रपति थॉमस जैफ़रसन का था, जिन्होंने न्यू टेस्टामेंट की एक प्रति बनाई जिसमें उनके अनुसार यीशु के ईश्वर होने का उल्लेख करने वाले अनुभागों को हटा दिया गया था, जबकि यीशु की आचार नीति और नैतिक शिक्षा से संबंधित अंश रखे गए थे।[4] जैफ़रसन न्यू टेस्टामेंट की इस प्रति को अपने साथ रखते थे, और यीशु को संभवतः सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ नैतिक गुरु के रूप में सम्मान देते थे।
वास्तव में, जैफ़रसन के स्वतंत्रता घोषणा के यादगार शब्दों का मूल यीशु की उस शिक्षा में है कि ईश्वर के लिए प्रत्येक मनुष्य की विशाल तथा समान महत्ता है, उसके लिंग, प्रजाति या सामाजिक स्थिति पर ध्यान दिए बगैर। यह प्रसिद्ध दस्तावेज़ उल्लिखित करता है, “हम इन सत्यों को स्पष्ट मानते हैं, कि सभी मनुष्य बराबर बनाए गए है, और उन्हें उनके विधाता द्वारा कुछ विशिष्ट अविच्छेद्य अधिकार दिए गए हैं…”
लेकिन जैफ़रसन एक बात का उत्तर नहीं देते हैं: यदि जैफ़रसन गलत तरीके से ईश्वर होने का दावा कर रहे थे तो वे एक अच्छे नैतिक गुरु नहीं हो सकते थे। परंतु क्या यीशु ने वाकई देवत्व का दावा किया था? यीशु के दावों पर नजर डालने से पूर्व, हम इस संभावना की पड़ताल करने की जरूरत है कि वे बस एक महान धार्मिक नेता थे?
महान धार्मिक नेता?
हैरानी की बात यह है कि यीशु ने कभी धार्मिक नेता होने का दावा नहीं किया। उन्होंने कभी धार्मिक राजनीति में हिस्सा नहीं लिया, या किसी महत्वाकांक्षी कार्य को आगे नहीं बढ़ाया, और वे लगभग पूरी तरह से स्थापित धार्मिक तंत्र के बाहर से सेवा करते रहे।
जब यीशु की तुलना अन्य महान धार्मिक नेताओं से की जाती है, तो कुछ विशिष्ट अंतर उभर कर आते हैं। रवि ज़कारिया, जो हिन्दू संस्कृति में पले-बढ़े, ने विश्व के धर्मों का अध्ययन किया है तथा ईसा मसीह और अन्य धर्मों के संस्थापकों के बीच एक बुनियादी अंतर पाया।
“इन सबमें एक निर्देश, जीवन जीने का तरीका उभर कर सामने आता हैI आप ज़रथुश्त्र नहीं बन जाते; आप ज़रथुश्त्र की बात सुनते हैं। यह बुद्ध नहीं जो आपको ज्ञान देते हैं; यह उनके महान सत्य हैं, जो आपको निर्देश देते हैं। यह मोहम्मद नहीं जो आपको रूपांतरित करते हैं; यह कुरान की खूबसूरती है जो आपको लुभाती है। इसके विपरीत, यीशु कोई शिक्षा नहीं देते या अपने संदेश की व्याख्या नहीं करते। वे अपने संदेश के समरूप हैं।”[5]
जकारिया की बातों की सच्चाई ईसा चरित में यीशु के संदेश केवल “मुझ तक आओ” या “मेरा अनुसरण करो” या “मेरी आज्ञा का पालन करो” की पुनरावृत्ति से रेखांकित होती है। साथ ही, यीशु ने यह स्पष्ट किया था कि उनका प्रमुख उद्देश्य पापों को क्षमा करना है, जो केवल ईश्वर ही कर सकते हैं।
दुनिया के महान धर्मों में, ह्यूस्टन स्मिथ ने पाया, “केवल दो ही व्यक्तियों ने अपने समकालीनों को इतना चकित किया कि उनके बारे में पूछा जाने वाला प्रश्न ‘वह कौन है?’ नहीं होता था कि बल्कि ‘वह क्या है?’ होता था। वे यीशु और बुद्ध थे। उनके द्वारा दिए उत्तर एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत थे। बुद्ध ने स्पष्ट रूप से कहा कि वे मानव मात्र हैं, न कि देवता—बिल्कुल ऐसे कि उन्हें यह पूर्वानुमान हो गया था कि भविष्य में उन्हें पूजने का प्रयास किया जाएगा। दूसरी तरफ, यीशु ने दावा किया कि …वे ईश्वरीय हैं।”[6]
और यह हमें इस प्रश्न की ओर ले जाता है कि यीशु ने स्वयं अपने बारे में किस चीज़ का दावा किया था; विशेष रूप से, क्या यीशु ने दिव्य होने का दावा किया था?
क्या कभी यीशु ने भगवान होने का दावा किया?
तो ऐसा क्या है, जो अनेक विद्वानों को यह विश्वास दिलाता है कि यीशु ने भगवान होने का दावा किया था? लेखक जॉन पाइपर बताते हैं कि यीशु ने ऐसी शक्ति से युक्त होने का दावा किया जो केवल भगवान के पास ही होता है।
“…यीशु के वचनों और कार्यों के कारण उनके मित्र और शत्रु बारंबार विचलित हुए। वह किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह सड़क पर चल रहे होते, फिर मुड़ते और कुछ यूँ कहते, ‘अब्राहम से पहले, मैं था।’ या, ‘यदि तुमने मुझे देख लिया, तो तुमने पिता परमेश्वर को देख लिया।’ या, ईश-निंदा का आरोप लगने के बाद, बहुत शांतिपूर्वक कहते, ‘मनुष्य की संतान को धरती पर पाप को क्षमा करने का अधिकार है।’ मृतकों को वे कुछ इस प्रकार कह सकते थे, ‘आगे बढ़ो,’ या ‘उठो।’ और वे लोग आज्ञापालन करते। समुद्र के तूफान को वे कहते, ‘शांत हो जाओ।’ और पावरोटी को वे कहते, ‘हजार भोजन बन जाओ।’ और ऐसा तत्काल हो जाता।”[7]
परंतु यीशु के इन कथनों का तात्पर्य क्या था? क्या ऐसा संभव है कि मूसा या एलिय्याह, या दानियल की तरह यीशु भी महज एक पैगंबर थे? ईसा चरित का सतही अध्ययन भी यह दर्शाता है कि यीशु ने पैगंबर से ऊपर होने का दावा किया। किसी भी अन्य पैगंबर ने स्वयं के बारे में इस प्रकार का दावा नहीं किया था; वास्तव में, किसी भी अन्य पैगंबर ने स्वयं को परमेश्वर का दर्जा नहीं दिया।
कुछ लोग तर्क देते हैं कि यीशु ने कभी भी स्पष्टतया नहीं कहा कि, “मैं भगवान हूँ।” यह सत्य है कि उन्होंने कभी भी बिल्कुल इन्हीं शब्दों को नहीं कहा कि, “मैं भगवान हूँ।” हालाँकि, यीशु ने कभी स्पष्टतया यह भी नहीं कहा कि, “मैं मनुष्य हूँ,” या “मैं पैगंबर हूँ।” तथापि यीशु निस्संदेह मनुष्य थे, और उनके अनुयायी उन्हें मूसा और एलिय्याह की तरह पैगंबर मानते थे। इसलिए हम यीशु के दिव्य होने को केवल इसलिए नहीं नकार सकते, क्योंकि उन्होंने बिल्कुल उन्हीं शब्दों को नहीं कहा, और न ही यह कह सकते हैं कि वे पैगंबर नहीं थे।
वास्तव में, यीशु के स्वयं के बारे में कथन इस विचार का विरोध करते हैं कि वे बस एक महान व्यक्ति या पैगंबर थे। एक से अधिक अवसरों पर, यीशु ने स्वयं का परमेश्वर की संतान की तरह उल्लेख किया। जब U2 के प्रमुख गायक बोनो से पूछा गया कि क्या वे यीशु के भगवान होने को अवास्तविक मानते हैं, तो उनका उत्तर था:
“नहीं, यह मेरे लिए यह अवास्तविक नहीं है। देखें, यीशु की कहानी का धर्म निरपेक्ष उत्तर कुछ इस प्रकार होता है: वे एक महान पैगंबर थे, स्पष्ट रूप से बहुत दिलचस्प व्यक्ति थे, और एलिय्याह, मोहम्मद, बुद्ध या कन्फ्यूशियस जैसे अन्य महान पैगंबरों की तरह उनके पास भी कहने को बहुत कुछ था। लेकिन यीशु इसकी अनुमति नहीं देते हैं। वे आपको उन्मुक्त नहीं छोड़े देते। यीशु कहते हैं, नहीं। मैं नहीं कहता है कि मैं एक गुरु हूँ, मुझे गुरु मत बुलाओ। मैं यह नहीं कह रहा कि मैं पैगंबर हूँ….मैं कह रहा हूँ कि मैं परमेश्वर का अवतार हूँ।” और लोग कहते हैं: नहीं, नहीं, कृपया केवल पैगंबर रहें। एक पैगंबर को हम स्वीकार कर सकते हैं।”[8]
यीशु के दावों की पड़ताल करने से पहले, यह समझना महत्वपूर्ण है कि उन्होंने वे दावे यहूदियों के एक ईश्वर में आस्था (एकेश्वरवाद) के संदर्भ में किया था। कोई भी श्रद्धालु यहूदी एक से अधिक ईश्वर पर विश्वास नहीं करेगा। और यीशु भी केवल एक ही ईश्वर में विश्वास रखते थे, और अपने पिता परमेश्वर, “एकमात्र वास्तविक ईश्वर” से प्रार्थना करते थे।[9]
परंतु उसी प्रार्थना में, यीशु ने अपने पिता परमेश्वर के साथ हमेशा मौजूद होने के बारे में कहा। और जब फिलिप यीशु को पिता परमेश्वर का दर्शन कराने के लिए कहा, यीशु ने कहा, “फिलिप, मैं तुम्हारे साथ इतने लंबे समय से हूँ और तुम मुझे जानते नहीं? जिसने भी मुझे देखा है, उसने को पिता परमेश्वर को देख लिया है।”[10] तो प्रश्न यह है कि: “क्या यीशु यहूदी देवता होने का दावा कर रहे थे जिन्होंने ब्रह्मांड की रचना की थी?”
क्या यीशु ने अब्राहम एवं मूसा का भगवान होने का दावा किया?
यीशु ने निरंतर स्वयं का उल्लेख इस प्रकार किया जिससे उनके श्रोता चकरा गए। जैसा कि पाइपर ध्यान दिलाते हैं, यीशु ने एक धृष्ट बोल कहे, “अब्राहम के अस्तित्व से पूर्व, मैं हूँ।”[11] उन्होंने मार्था और उसके आसपास मौजूद अन्य लोगों को कहा, “मैं पुनरुत्थान एवं जीवन हूँ; वह जो मुझ पर विश्वास करता है, मृत होने के बावजूद, वह जीवित रहेगा।”[12] इसी प्रकार, यीशु ने इस प्रकार के बोल कहे, “मैं जगत का प्रकाश हूँ,”[13] “मैं परमेश्वर का एकमात्र मार्ग हूँ,”[14] या, “मैं “सत्य” हूँ।[15] ये और इस प्रकार के अन्य दावों से पूर्व परमेश्वर हेतु प्रयोग होने वाले पवित्र शब्दों “मैं ” (प्राचीन यूनानी भाषा में ईगो ईमी) का उपयोग किया गया।[16] यीशु के इन बोलों का क्या तात्पर्य था, और “मैं” शब्द की क्या महत्ता है?
एक बार फिर, हमें वापस संदर्भ पर लौटना होगा। यहूदी धर्मग्रंथों में, जब मूसा ने जलती झाड़ी पर परमेश्वर से उनका नाम पूछा, परमेश्वर ने उत्तर दिया, “मैं हूँ।” वे मूसा को बता रहे थे कि वे ही एकमात्र देवता हैं, जो काल से परे है और हमेशा से अस्तित्व में है। अविश्वसनीय रूप से, यीशु इन शब्दों का उपयोग स्वयं का वर्णन करने के लिए कर रहे थे। प्रश्न है, “क्यों?”
मूसा के काल से ही, कोई भी धार्मिक यहूदी स्वयं या किसी अन्य का उल्लेख “मैं” से नहीं करता। इसके परिणामस्वरूप, यीशु का “मैं” दावा यहूदी नेताओं को क्रोधित कर दिया। उदाहरण के लिए, एक बार कुछ नेताओं ने यीशु को यह बताया कि वे क्यों उनकी हत्या का प्रयास कर रहे थे: “क्योंकि तुमने, एक मानव मात्र ने, स्वयं को ईश्वर बना दिया है।”[17]
यीशु द्वारा ईश्वर के नाम के प्रयोग ने धार्मिक नेताओं को अत्यधिक क्रोधित कर दिया था। सार यह है कि उन ओल्ड टेस्टामेंट विद्वानों का बिल्कुल पता था कि वे क्या कह रहे थे—वे ईश्वर, ब्रह्मांड के रचयिता, होने का दावा कर रहे थे। केवल यही दावा ईश-निंदा के आरोप के लिए काफी था। पाठ से यीशु के ईश्वर होने के दावे का अर्थ निकालना स्पष्ट रूप से न्यायसंगत है, न केवल उनके शब्दों से, बल्कि उन शब्दों से होने वाली प्रतिक्रिया से भी।
सी. एस. लुईस ने प्रारंभ में यीशु को मिथक माना था। परंतु मिथक को भली भांति जानने वाला यह प्रतिभाशाली साहित्यिक व्यक्ति भी इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यीशु को एक वास्तविक व्यक्ति होना चाहिए। इसके अलावा, जैसे-जैसे लुईस ने यीशु से संबंधित प्रमाणों की पड़ताल की, उन्हें भरोसा हो गया कि यीशु न केवल वास्तव में थे, बल्कि अभी तक के सब लोगों से बिल्कुल अलग थे। लुईस लिखते हैं,
“इसके बाद असली झटका लगा,’ लुईस ने लिखा: ‘इन यहूदियों के बीच अचानक एक ऐसा व्यक्ति आया जो स्वयं को ईश्वर बताता था। वह पापों को क्षमा करने का दावा करता था। वह कहता था कि वह हमेशा से मौजूद था। वह कहता था कि काल के अंत में वह दुनिया पर निर्णय देने वाला है।”[18]
लुईस के लिए, यीशु के दावे अत्यधिक मौलिक एवं प्रकांड थे, जो किसी भी सामान्य गुरु या धार्मिक नेता नहीं किए जा सकते थे। (यीशु के दिव्य होने से संबंधित दावों पर गहराई से नजर डालने के लिए,
किस प्रकार के भगवान?
कुछ लोगों का तर्क है कि यीशु, ईश्वर का केवल एक हिस्सा होने का दावा कर रहे थे। परंतु यह विचार कि हम सब ईश्वर के अंश हैं, और हम सबके अंदर देवत्व का बीज है, यीशु के शब्दों और कार्यों का संभावित अर्थ बिल्कुल नहीं है। ऐसे विचार संशोधनवादी हैं, उनकी शिक्षा से भिन्न, उनके व्यक्त विश्वासों से भिन्न, और उनके अनुयायियों की उनकी शिक्षा की समझ से बिल्कुल भिन्न हैं।
यीशु ने बताया कि वे उस तरह से ईश्वर हैं जैसे यहूदी अपने ईश्वर को समझते थे और जिस प्रकार से यहूदी धर्मग्रंथों में ईश्वर का वर्णन है। न यीशु और न ही उनके श्रोता स्टार वार्स से अस्तित्व में आए थे, और इसलिए जब उन्होंने ईश्वर के बारे में कहा, वे ब्रह्मांडीय शक्तियों के बारे में नहीं कह रहे थे। यीशु की ईश्वर की अवधारणा को पुनः परिभाषित करना बस एक शरारती इतिहास है।
लुईस समझाते हैं,
आइए अब इसे स्पष्ट कर लें। सर्वेश्वरवादियों में, भारतीयों की तरह, कोई भी यह कह सकता है कि वह ईश्वर का अंश है, या ईश्वर के साथ है… परंतु इस व्यक्ति का अर्थ, चूँकि वे एक यहूदी थे, उस प्रकार का ईश्वर नहीं हो सकता। उनकी भाषा में, ईश्वर का अर्थ इस दुनिया से बाहर होना, इस दुनिया के रचयिता, और किसी भी अन्य चीज़ से बहुत ज्यादा अलग होना है। और जब आप यह समझ जाते हैं, फिर आप पाएँगे कि इस व्यक्ति ने जो कहा, उससे अधिक चौंकाने वाली बात किसी भी मानव द्वारा कभी नहीं गई।[19]
बेशक अनेक लोग हैं जो यीशु को एक महान गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं, इसके बावजूद उन्हें ईश्वर पुकारने को इच्छुक नहीं हैं। एक देवतावादी के रूप में, हमने देखा है कि थॉमस जैफ़रसन को यीशु के देवत्व को नकारते हुए भी, नैतिक तथा आचार नीतियों पर यीशु की शिक्षा को स्वीकारने में कोई समस्या नहीं है।[20] परंतु जैसा कि हमने कहा है और आगे पड़ताल करेंगे कि यदि यीशु वे नहीं थे जिसका वे दावा करते थे, तो हमें अन्य विकल्पों को जाँचना होगा, जिनमें से कोई भी उन्हें एक महान नैतिक गुरु नहीं बनाएगा। लुईस तर्क देते हैं, “मैं लोगों को वैसी मूर्खतापूर्ण बातें कहने से रोकना चाहता हूँ जो यीशु के बारे में अकसर कही जाती हैं: ‘मैं यीशु को एक महान नैतिक गुरु के रूप में स्वीकार करने को तैयार हूँ, परंतु उनके ईश्वर होने के दावे को नहीं स्वीकारता।’ यह वह चीज़ है जो हमें नहीं कहना चाहिए।”[21]
सत्य की उनकी खोज के दौरान, लुईस को समझ आया कि यीशु की पहचान से संबंधित दोनों पहलुओं को एक साथ नहीं प्राप्त कर सकते। या तो यीशु वही थे, जिसका वे दावा करते थे—हाड़ मांस में ईश्वर—या उनके दावे गलत थे। और यदि वे गलत थे, तो यीशु एक महान नैतिक गुरु नहीं हो सकते। या तो वे जानबूझ कर झूठ बोल रहे थे या वे ईश्वरीय जटिलता वाले पागल थे।
क्या यीशु झूठ बोल रहे थे?
यीशु के कठोरतम आलोचकों ने भी कभी कभार ही उन्हें झूठा कहा। यह उपनाम यीशु के उच्च नैतिक तथा आचार नीति शिक्षाओं के उपयुक्त बिल्कुल नहीं है। परंतु यदि यीशु वे नहीं थे जिसका वे दावा करते थे, तो हमें इस विकल्प पर विचार करना पड़ेगा कि वे जानबूझ करके सभी को भ्रमित कर रहे थे।
अभी तक के सबसे प्रख्यात और सबसे प्रभावी राजनीतिक कार्यों में से एक निकोलो मेकियावेली द्वारा 1532 में लिखा गया था। अपने इस उत्कृष्ट साहित्य, द प्रिंस, में मेकियावेली ने सत्ता, सफलता, छवि और कार्यकुशलता की निष्ठा, आस्था और ईमानदारी से ज्यादा प्रशंसा की है। मेकियावेली के अनुसार, झूठ बोलना ठीक है यदि यह राजनीतिक लक्ष्य को पूरा करता है।
क्या ईसा मसीह अपनी संपूर्ण सेवा की स्थापना एक झूठ पर केवल सत्ता, प्रसिद्धि या सफलता प्राप्त करने के लिए कर सकते थे? वास्तव में, यीशु के यहूदी विरोधियों ने लगातार हमेशा उन्हें एक ढोंगी और झूठे के रूप में दिखाने का प्रयास किया। वे उनसे सवालों की झड़ी लगा देते थे, ताकि वे उलझ जाएँ और स्वयं अपनी ही बात का खंडन कर बैठे। इसके बावजूद यीशु ने असाधारण सामंजस्य के साथ उत्तर दिया।
प्रश्न, जिस पर हमें विचार करना चाहिए: वह क्या चीज़ हो सकती है, जिसने यीशु को अपना संपूर्ण जीवन एक झूठ की तरह व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया होगा? उन्होंने यह बताया कि ईश्वर झूठ और कपट के घोर विरोधी हैं, इसलिए वह अपने पिता परमेश्वर को खुश करने के लिए ऐसा नहीं कर सकते थे। उन्होंने निश्चित रूप से अपने अनुयायियों के लाभ हेतु झूठ नहीं बोला, क्योंकि उनमें से एक को छोड़ कर सब उनके प्रभुत्व को परित्याग करने के बजाय शहीद हो गए (“क्या धर्मदूत मानते थे कि यीशु भगवान हैं?” देखें। और इस प्रकार हमारे पास केवल दो उचित व्याख्या शेष रह गए हैं, जिनमें से दोनों समस्यात्मक हैं।
लाभ
अनेक व्यक्तियों ने निजी लाभ के लिए झूठ बोला है। वास्तव में, अधिकतर झूठों के पीछे खुद को मिलने वाला लाभ होता है। अपनी पहचान के बारे में झूठ बोलने से यीशु को क्या लाभ हो सकता था? सबसे स्पष्ट उत्तर सत्ता होगा। यदि लोग मानते थे कि वे ईश्वर थे, तो उनके पास अथाह शक्ति होती। (इसीलिए सीज़र जैसे अनेक प्राचीन नेताओं ने दिव्य उद्गम का दावा किया।)
इस व्याख्या के पीछे एक बाधा है कि यीशु ने स्वयं को आसीन सत्ता की दिशा में ले जाने वाले सारे प्रयासों को नकारा, और ऐसी शक्तियों का दुरुपयोग करने वाले तथा उनके लिए अपना जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्तियों को दंडित किया। उन्होंने बगैर सामर्थ्य वाले परित्यक्त लोगों (वेश्याएँ तथा कुष्ठरोगियों) तक पहुँचने का भी प्रयास किया, और नगण्य प्रभाव वाले लोगों का एक समूह बनाया। एक तरह से इसे विचित्र ही कहा जा सकता है, वह सब, जो यीशु ने किया और कहा, सत्ता के विपरीत दिशा में ही गए।
ऐसा प्रतीत होता है कि यदि सत्ता ही यीशु की प्रेरणा थी, तो उन्होंने हर हाल में सूली चढ़ना टालने का प्रयास किया होता। तथापि, अनेक अवसरों पर उन्होंने अपने अनुयायियों को कहा कि सूली उनकी नियति एवं लक्ष्य है। रोमन सूली पर चढ़ने से किसी को शक्ति कैसे प्राप्त होती?
निस्संदेह, मृत्यु हर चीज़ को उचित केंद्र में ले आती है। और हालाँकि अनेक शहीदों ने अपने ध्येय के लिए प्राण त्यागे, शायद ही कोई किसी ज्ञात झूठ के लिए मरने को इच्छुक हो। निश्चित रूप से यीशु के निजी लाभ की सारी आशाएँ सूली के साथ ही समाप्त हो जातीं। फिर भी, उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक पिता परमेश्वर के अनन्य पुत्र होने का दावा नहीं त्यागा। न्यू टेस्टामेंट विद्वान, जे. आई. पैकर बताते हैं कि यह पदवी यीशु के निजी देवत्व की ओर दृढ़तापूर्वक संकेत करती है।[22]
एक विरासत
तो यदि यीशु निजी लाभ के लिए झूठ बोलने से ऊपर थे, तो एक विरासत छोड़ पाने के लिए उनके मौलिक दावे संभवतः गलत साबित हो गए हों। पीटकर गुदा बना देने और सूली पर ठोंक दिए जाने की संभावना अधिकतर संभावित सुपरस्टार के उत्साह को तेजी से ठंडा कर देती।
यहाँ एक और परेशान करने वाला तथ्य है। यदि यीशु पिता परमेश्वर के संतान होने का दावा त्याग देते, तो उनकी कभी निंदा नहीं की जाती। यह उनके ईश्वर होने का दावा और इसका त्याग करने की अनिच्छा थी जिसके कारण उन्हें सूली पर चढ़ाया गया।
यदि अपनी विश्वसनीयता तथा ऐतिहासिक प्रतिष्ठा को बढ़ाना यीशु के झूठ के पीछे की प्रेरणा होती, तो इस बात को समझाना होगा कि कैसे एक यहूदिया गाँव के एक गरीब बढ़ई का बेटा भविष्य की उन घटनाओं का पूर्वानुमान लगा सकता है, जो उसके नाम को विश्वव्यापी प्रमुखता प्रदान करेंगे। उसे कैसे ज्ञात होता कि उसे संदेश बचे रहेंगे? यीशु के अनुयायी भाग खड़े हुए थे और पतरस ने उन्हें त्याग दिया था। एक धार्मिक विरासत आरंभ करने का फॉर्मूला तो यह बिल्कुल ही नहीं है।
क्या इतिहासकार मानते हैं कि यीशु ने झूठ बोला? विद्वानों ने यीशु के नैतिक चरित्र में दोष के प्रमाणों की खोज के लिए उनके शब्दों और जीवन की पड़ताल की है। वास्तव में, सर्वाधिक उत्साही संशयवादी भी यीशु के सदाचार और नैतिक पवित्रता के कारण निस्तब्ध थे।
इतिहासकार फिलिप शैफ़ के अनुसार, धर्म के इतिहास और धर्म-निरपेक्ष इतिहास में इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि यीशु ने किसी चीज़ के बारे में झूठ बोला था। शैफ़ तर्क देते हैं, “किस प्रकार तर्क, सामान्य विवेक और अनुभव के नाम पर कोई कपटी, स्वार्थी, दुष्ट व्यक्ति इतिहास में ज्ञात पवित्रतम और महानतम चरित्र को आरंभ से अंत तक पूर्ण सत्यता तथा वास्तविकता के साथ निभाया।?”[23]
झूठ के विकल्प के साथ जाना उन सभी चीजों की विपरीत दिशा में तैरने के समान है जो यीशु ने बताया, और जिनके लिए वे जीये और प्राण त्यागे। अधिकतर विद्वानों के लिए, इसका कोई अर्थ नहीं है। फिर भी, यीशु के दावों का खंडन के लिए कुछ स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने पड़ेंगे। और यदि यीशु के दावे सही नहीं हैं, और वे झूठ नहीं बोल रहे थे, तो एक ही विकल्प शेष रह जाता है कि संभवतः वे खुद को ही धोखा दे रहे हों।
क्या यीशु स्वयं को ही धोखा दे रहे थे?
अल्बर्ट स्वाइत्ज़र, जिन्हें 1952 में मानवीय प्रयासों के कारण नोबल पुरस्कार मिला था, के यीशु के बारे में अपने ही विचार थे। स्वाइत्ज़र इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यीशु के भगवान होने के दावे के पीछे पागलपन था। दूसरे शब्दों में, यीशु अपने दावों के बारे में गलत थे, परंतु उन्होंने जानबूझ कर झूठ नहीं बोला। इस सिद्धांत के अनुसार, यीशु को इस बात का भ्रम हो गया था कि वे मसीहा हैं।
लुईस ने इस विकल्प पर ध्यानपूर्वक विचार किया। उन्होंने इसका यह मतलब निकाला कि यदि यीशु के दावे सही नहीं थे, तो उन्हें विक्षिप्त होना चाहिए था। लुईस तर्क देते हैं कि ईश्वर होने का दावा करने वाला व्यक्ति एक महान नैतिक गुरु नहीं हो सकता। “वह एक पागल हो सकता है—उस व्यक्ति के स्तर का जो यह कहता हो कि वह एक पकाया गया अंडा है—या फिर वह नर्क का शैतान होगा।”[24]
यीशु के जीवन और उपदेशों का अध्ययन करने वाले अधिकतर व्यक्ति मानते हैं कि वे अत्यंत विवेकशील थे। यद्यपि फ़्रांसीसी दार्शनिक जौं-ज़ाक़ रूसो (1712–78) के स्वयं का जीवन अनैतिकता और निजी संशयवाद से परिपूर्ण था, उन्होंने यह कहते हुए यीशु के श्रेष्ठ चरित्र और प्रत्युत्पन्नमतित्व को माना, “जब प्लेटो ने अपने काल्पनिक न्याय परायण मनुष्य का वर्णन किया…उसने बिल्कुल यीशु के चरित्र का ही वर्णन किया। …यदि सुकरात का जीवन एवं मृत्यु किसी दार्शनिक का जीवन एवं मृत्यु है, तो यीशु का जीवन एवं मृत्यु किसी ईश्वर का जीवन एवं मृत्यु है।”[25]
बोनो निष्कर्ष निकालते हैं कि यीशु को “पागल” करार देना बिल्कुल अंतिम विकल्प होता।
“तो आपके पास जो शेष रह जाता है कि या तो यीशु वही थे जिसका वे दावा करते थे—या पूरे पागल थे। मेरा मतलब है कि हम लोग चार्ल्स मैन्सन के स्तर के पागलपन की बात कर रहे हैं…. मैं यहाँ मज़ाक नहीं कर रहा। यह विचार कि आधी दुनिया के लिए उनकी सभ्यता की दिशा का भविष्य एक पागल के कारण परिवर्तित और ठीक उलट सकता है, मेरे लिए यह अवास्तविक है….”[26]
तो, क्या यीशु एक झूठे या पागल थे, या वे पिता परमेश्वर की संतान थे? क्या यीशु के बारे में उनके देवत्व को नकारने के साथ-साथ “केवल एक अच्छे नैतिक गुरु” का लेबल लगा कर जैफ़रसन सही थे? दिलचस्प रूप से, यीशु को सुनने वाली श्रोताओं—अनुयायी और विरोधी दोनों—ने कभी भी उन्हें महज एक नैतिक गुरु नहीं माना। यीशु ने स्वयं से मिलने वाले व्यक्तियों पर तीन प्रमुख प्रभाव छोड़े: द्वेष, आतंक या श्रद्धा।
ईसा मसीह के दावे हमें निर्णय लेने के लिए मजबूर करते हैं। जैसा लुईस ने कहा, हम यीशु को महज एक महान धार्मिक नेता या महान नैतिक गुरु की श्रेणी में नहीं डाल सकते। यह पूर्व संशयवादी हमें यह कहते हुए यीशु के बारे में अपना मत निर्धारित करने की चुनौती देते हैं कि,
“आपको अपना चुनाव करना पड़ेगा। या तो यह व्यक्ति पिता परमेश्वर की संतान था, और है: या कोई पागल व्यक्ति या कुछ और खराब चीज़। आप उसे मूर्ख कह कर चुप कर सकते हैं, आप उस पर थूक सकते हैं और उन्हें शैतान की तरह मार सकते हैं या उनके चरणों में गिर कर उन्हें भगवान और ईश्वर पुकार सकते हैं। परंतु हमें उनके बारे में एक महान मानवीय गुरु वाली निरर्थक अवधारणा नहीं बनानी चाहिए। उन्होंने हमें इस बारे में उन्मुक्त नहीं छोड़ा है। उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था।”[27]
मियर क्रिश्चियानिटी में, लुईस यीशु की पहचान से संबंधित विकल्पों पर विचार करते हैं, और इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वे बिल्कुल वही थे, जिसका वे दावा करते थे। इस महान प्रतिभाशाली साहित्यिक व्यक्ति की यीशु के जीवन और उपदेशों की ध्यानपूर्वक पड़ताल ने उनकी अपनी नास्तिकता त्यागने और प्रतिबद्ध ईसाई बनने को प्रेरित किया।
मानव इतिहास का सबसे बड़ा प्रश्न “असली ईसा मसीह कौन है?” है। बोनो, लुईस और अनेकों ने इस बात को माना कि ईश्वर मानव के रूप में इस धरती पर आए। परंतु यदि यह सत्य है, तो हम उन्हें आज जीवित होने आशा करेंगे। और उनके अनुयायी बिल्कुल यही मानते हैं।
क्या यीशु वास्तव में मृत्यु से वापस लौट आए थे?
ईसा मसीह के प्रत्यक्षदर्शी वास्तव में इस प्रकार बोलते और कार्य करते थे, जैसे कि उन्हें विश्वास था कि यीशु सूली चढ़ाए जाने के बाद वास्तव में मृत्यु से वापस लौट आए। यदि वे गलत थे, तो ईसाई धर्म एक झूठ की नींव पर बनी है। परंतु अगर वे सही थे, तो ऐसा चमत्कार उन सब बातों को सिद्ध करेगा जो उन्होंने परमेश्वर, स्वयं, और हमलोगों के बारे में कहा था।
परंतु, क्या हमें ईसा मसीह के पुनरुत्थान को केवल आस्था के रूप में मानना चाहिए, या इसका कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण भी है? अनेक संशयवादी व्यक्तियों ने पुनरुत्थान की बातों को गलत साबित करने के लिए ऐतिहासिक रिकॉर्ड की पड़ताल आरंभ कर दी। उन्होंने क्या पता लगाया?
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क्या यीशु ने बताया कि मृत्यु के बाद क्या होता है?
यदि यीशु सचमुच मृत्यु से वापस लौट आए थे, तो उन्हें पता होना चाहिए कि दूसरी तरफ क्या है। यीशु ने जीवन का अर्थ और हमारे भविष्य के बारे में क्या बताया? क्या परमेश्वर तक पहुँचने के अनेक मार्ग हैं या यीशु ने केवल एक मार्ग के बारे में बताया था? चौंका देने वाले उत्तरों के लिए “यीशु क्यों?” पढ़ें।
क्या यीशु जीवन को एक उद्देश्य प्रदान कर सकते हैं?
क्या यीशु जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं: “मैं कौन हूँ?” “मैं यहाँ क्यों हूँ?” और, “मैं कहाँ जाने वाला हूँ?” यीशु ने जीवन और धरती पर हमारे उद्देश्य के बारे में कुछ दावे किए, जिनकी जाँच उन्हें अस्नेही या अशक्त बताने से पहले करने की जरूरत है। यह आलेख, “यीशु क्यों,” यीशु के धरती पर आगमन का रहस्य, और हम लोगों के लिए इसके अर्थ की पड़ताल करता है।
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