प्रत्यक्षदर्शी
यीशु ने बहुत ही आम लोगों को अपने अनुयायियों के रूप में चुना। उन्होंने उन लोगों को अपने बारे में बताते हुए और ईश्वर के संदेश के गूढ़ सत्य की व्याख्या करते हुए उन लोगों के साथ तीन साल बिताए। उन तीन वर्षों के दौरान, यीशु ने अनेक चमत्कार दिखाए, साहसी दावे किए और पूर्णतया सदाचारी जीवन जीया। बाद में, इन धर्मदूतों ने यीशु के बोल और कार्यों को लिपिबद्ध किया। इन नवविधान वृत्तांतों को प्रामाणिकता के लिए अन्य दूसरे प्राचीन ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के मुकाबले अत्यंत भरोसेमंद कहा गया है (अरे थे गोस्पेल्स ट्रू? देखें)।
विद्वानों ने पाया कि नवविधान एक निष्पक्षता प्रदर्शित करता है जो यीशु के बारे में धर्मदूतों के वृत्तांतों को पूर्णतः विश्वसनीय बनाता है। उन्होंने ईमानदारी के साथ अपनी देखी और सुनी बातों का वर्णन किया। इतिहासकार विल ड्यूरंट टिप्पणी करते हैं:
“ये उस प्रकार के व्यक्ति बिल्कुल नहीं थे जिन्हें कोई दुनिया बदलने के लिए चुनता। ईसा चरित वास्तविक रूप से उनके चरित्रों को अलग करता है और ईमानदारी से उनकी गलतियों को उजागर करता है।”[1]
जब पहली बार उनका सामना यीशु से हुआ था तब धर्मदूतों को उनके बारे में कुछ भी नहीं पता था। हालांकि, जब उन्होंने उनके गंभीर संदेश सुने और उन्हें अंधे की आंखों की रोशनी बहाल करते और मृत को जीवित करते देखा, तब उन्हें वह भविष्यवाणी याद आई होगी कि मसीहा स्वयं परमेश्वर होंगे। (यशायाह 9:6; मिकेयाह 5:2)। लेकिन जब उन लोगों ने उन्हें सूली पर मरते देखा, तो यीशु पराजित और शक्तिहीन प्रतीत हुए। यीशु के परमेश्वर होने का उनका कोई भी विचार निस्संदेह रूप से सूली पर गायब हो गया था।
हालांकि, सदमें वाली घटना के तीन दिन बाद, वह जो सूली पर चढ़ते समय बिल्कुल अशक्त दिख रहा था चमत्कारपूर्ण ढंग से अपने अनुयायियों के सामने जीवित प्रकट हुआ। और वह सशरीर प्रकट हुए। उनलोगों ने उन्हें देखा, उन्हें छुआ, उनके साथ भोजन किया और उन्हें ब्रह्मांड के सर्वोच्च सत्ता के रूप में अपनी गौरवान्वित स्थिति के बारे में बातें करते सुना। यीशु के निकटतम अनुयायियों में से एक और प्रत्यक्षदर्शी शिमौन पतरस ने लिखा:
“हमने यह अपनी आंखों से देखा: यीशु परम पिता परमेश्वर के प्रकाश से रोशन थे….हमने जो देखा और सुना—ईश्वर का वैभव, ईश्वर की आवाज़—उसके प्रति और अधिक आश्वस्त नहीं हो सके।” (2 पतरस 1: 16, 17 संदेश)
लेकिन क्या तथ्य कि धर्मदूतों ने यीशु के माध्यम से ईश्वर का वैभव देखा और ईश्वर की आवाज सुनी का अर्थ यह है कि उन लोगों ने उन्हें परमेश्वर मान लिया? नवविधान विद्वान ए. एच. मैक्निल इसका उत्तर देते हैं:
“…यीशु के जीवन का अंत स्पष्ट असफलता और अपमान के साथ होने के तुरंत बाद ही ईसाइयों के महत्वपूर्ण समूह ने—इक्के दुक्के लोग नहीं बल्कि, गिरजे के समूह ने—इस दृढ़ आस्था को तत्काल छोड़ दिया कि वे परमेश्वर थे।”
तो क्या नवविधान वृत्तांत लिखने वाले धर्मदूत वाकई मानते थे कि यीशु परमेश्वर हैं या वे उन्हें एक मनुष्य मानते थे? यदि वे यीशु को परमेश्वर मानते थे, तो क्या वे उन्हें ब्रह्मांड का सृष्टिकर्ता या इससे कुछ कम मानते थे? यीशु के देवत्व को नकारने वाले लोग कहते हैं कि धर्मदूतों ने बताया कि यीशु ईश्वर की परम रचना हैं और यह कि केवल परम पिता ही शाश्वत ईश्वर हैं। इसलिए, यीशु के बारे में उनकी आस्था को स्पष्ट करने के लिए, हम निम्न तीन प्रश्न पूछते हुए उनके शब्दों की जांच करेंगे:
- क्या धर्मदूत और प्रारंभिक ईसाई परमेश्वर के रूप यीशु की आराधना और उनकी स्तुति करते थे?
- क्या धर्मदूतों ने यह सिखाया कि उत्पत्ति में वर्णित सृष्टिकर्ता यीशु हैं?
- क्या धर्मदूत यीशु की आराधना ब्रह्मांड में सर्वश्रेष्ठ के रूप में करते थे?
प्रभु
यीशु के ऊपर जाने के बाद, धर्मदूतों ने यहूदियों और रोमन दोनों को यह दावा करते हुए चौंका दिया कि यीशु “प्रभु” हैं [3] और धर्मदूतों ने अकल्पनीय कार्य करते हुए यीशु की आराधना की, यहाँ तक कि उनकी इस प्रकार स्तुति की जैसे कि वे परमेश्वर थे। स्तिफनुस पर जबसे उन्होंने पत्थर बरसाना प्रारंभ किया वह यह कहते हुए प्रार्थना करता है, “हे प्रभु यीशु, मेरी आत्मा को स्वीकार कर”। (प्रेरितों के काम 7:59)।
दूसरे अनुयायी जल्दी ही स्तिफनुस के साथ शामिल हो गए, जो मृत्यु का सामना करते हुए भी, “यीशु की धर्म शिक्षा प्रदान करने और उसकी प्रशंसा करने के लिए…एक दिन के लिए भी नहीं रुके (प्रेरितों के काम 5:42)। धर्मदूतों ने यीशु के बारे में अपने ज्ञान को गिरजे के पादरियों के साथ साझा किया जिन्होंने उनके संदेश को अगली पीढ़ी तक पहुँचाया, इन धर्मदूतों में से अधिक शहीद हो गए थे।
धर्मदूत यूहन्ना के एक शिष्य इग्नेशियस ने यीशु के दूसरे आगमन के बारे में लिखा, “उसे देखो जो समय से ऊपर है, वह जो समय से परे है, वह जो अदृश्य है”। पॉलीकॉर्प को एक पत्र में उसने लिखा “यीशु परमेश्वर हैं”, “ईश्वर का अवतार,” और इफिसियों को उसने लिखा, “…अनंत जीवन के पुनरारम्भ के लिए, ईश्वर स्वयं मनुष्य के रूप में प्रकट हुए।” (इग्नेशियस का इफिसियों हेतु पत्र 4:13)
रोम के क्लिमेंट ने भी 96 ईसवी में यीशु के देवत्व के बारे में पढ़ाया, उन्होंने कहा, “हमें ईसा मसीह को परमेश्वर के रूप में देखना चाहिए।” (कुरिन्थियों 1:1 हेतु क्लिमेंट का दूसरा पत्र)
पॉलीकार्प, जो यूहन्ना के ही एक शिष्य भी थे उनपर यीशु को परमेश्वर के रूप में पूजने के लिए रोमन प्रशासक के समक्ष मुकदमा चलाया गया। जब उन्मत्त भीड़ उसके खून की प्यासी हो रही थी, तब रोमन न्यायाधीश ने आदेश दिया कि वह सीज़र की परमेश्वर के रूप में घोषणा करे। लेकिन पॉलीकार्प ने यह कहते हुए यीशु को अपने परमेश्वर के रूप में त्यागने की बजाय यह दाँव खेला,
“मैंने छियासी साल यीशु की सेवा की और उन्होंने कभी मेरे लिए कुछ गलत नहीं किया। मैं अपने उस राजा की निंदा कैसे कर सकता हूँ जिसने मेरी जान बचाई?”[4]
जैसे-जैसे प्रारंभिक गिरजों का विकास हुआ, गूढ़ज्ञानवादी और अन्य पंथों ने यह पढ़ाना शुरू कर दिया कि यीशु परमेश्वर के अधीन एक मनुष्य थे। यह तब चरमसीमा पर पहुँच गया जब चौथी सदी में लीबिया के एक लोकप्रिय धर्मोपदेशक, एरियस ने कई नेताओं को इस बात के लिए मना लिया कि यीशु संपूर्ण ईश्वर नहीं थे। फिर 325 ईसवी में गिरजा के अगुआ नायसिया के परिषद में इस मुद्दे का समाधान करने हेतु एकत्रित हुए कि यीशु सृष्टिकर्ता थे, या महज़ एक सृजन।[5] इन गिरजा के अगुआओं ने ज़बरदस्त ढंग से लंबे समय से प्रचलित ईसाई मत और नवविधान शिक्षा को स्वीकार किया कि यीशु संपूर्ण परमेश्वर थे।[6]